Friday, February 5, 2010

जूनी कचहरी

मैं जूनी कचहरी हूं। पाली पर दो सौ वर्ष तक शासन करने वाले सोनगरा वंश के अखेराज की पुत्री जयवंतीदेवी के पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म मेरे आंचल पर ही हुआ था। विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ सुदी तीज [9 मई, 1540 ईस्वी] रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल का वह समय भुलाए नहीं भूलता। ऐतिहासिक दस्तावेज और समकालीन घटनाएं आज भी इसकी गवाह है। कुछ समय पहले तक कुछ इतिहासकार प्रताप की जन्मस्थली मेवाड़ में बताते थे, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्यों और प्राचीन पुस्तकों के आधार पर उन्हें भी यह मानने को मजबूर होना पड़ा कि प्रताप मेरी गोद में जन्में। प्रताप अपनी माता की पहली संतान थे। पुरातन मान्यताओं के मुताबिक पहली संतान का जन्म महिला [माता] के पीहर में होता है। जयवंतीदेवी का पीहर मेरे मालिक अखेराज सोनगरा के यहां था। इसलिए, प्रताप ने यहां जन्म लिया और मेरी गोद में बचपन बिताया। पुराने शहर की तंग संकरी गलियों से होते हुए धानमंडी के भीतरी इलाके में बसी होने के कारण मुझ पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। कंक्रीट के जंगल में मेरी स्थापत्य कला लगभग खत्म हो रही है। त्याग, समर्पण, बलिदान, वीरता, साहस और शौर्य की प्रतिमूर्ति महाराणा प्रताप की जन्मस्थली का गौरव प्राप्त होने के बावजूद मुझ पर न तो पुरातत्व विभाग वालों की नजर पड़ी है और न ही जिला प्रशासन ने मेरी दीवारों से गिर रहे चूना पत्थर को सहेजने की कोशिश की है। कुछ सालों से मेरी सोलहवीं पीढ़ी मुझे बचाने के लिए हाथ-पैर मार रही है, लेकिन मेरे विकास की दिशा में अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया है।
उदयपुर की महाराणा प्रताप स्मारक समिति की ओर से प्रकाशित 'महाराणा प्रताप एंड हिज टाइमÓ स्मारिका में 'बंगाल के साहित्यकारों का महाराणा के प्रति दृष्टिïकोणÓ शीर्षक से प्रस्तुत आलेख में डॉ. सुनंदा भट्टाचार्य ने डॉ. कानूनगो के संदर्भ से स्वीकार किया कि 'शिवाजी और शेरशाह की तरह महाराणा प्रताप में भी अपने पिता से बचपन में अवहेलना और उपेक्षित व्यवहार पाया था। वे विमाता की ईष्र्या के शिकार भी थे।Ó इतना ही नहीं, उम्र में छोटा होने के बावजूद रानी भटयाणी ने अपने पुत्र जगमाल को उदयसिंह को उत्तराधिकारी बनवा दिया। डॉ. तेजकुमार समेत कई अन्य इतिहासकारों के संदर्भित ग्रंथों से इस तथ्य की पुष्टिï होती है। [बाद में तत्कालीन मेवाड़ के हित में जगमाल को हटाकर प्रताप को ही उत्तराधिकारी बनाया गया।] सत्ता हथियाने के इस राजनीतिक खेल में सुरक्षात्मक कारणों से भी महाराणा प्रताप का जन्म जयवंती देवी के पीहर [पाली] में होना माना जाता है। वैसे भी, सुरक्षा कारणों के मदद्ेनजर 'इतिहास अपने आप को दोहराता सा लगता हैÓ। प्रताप के पिता उदयसिंह को भी राजमहलों की राजनीति के बीच पन्नाधाय ने असीम स्वामीभक्ति का परिचय देकर बचाया। संभव है, रानी जयवंतीदेवी भी किसी संभावित बनवीर के आने से पहले ही, सावधान होकर पीहर [पाली] चली आई हो। जयवंतीदेवी की एक बहिन और अखैराज की दूसरी पुत्री का विवाह बीकानेर नरेश रायसिंह के साथ हुआ था। सोनगरा व सांचौरा चौहानों के इतिहास के मुताबिक 'डिंगल भाषा के प्रसिद्ध विद्वान पीथल [पृथ्वीराज] का जन्म इन्हीं से हुआ। इस लिहाज से पीथल और प्रताप मौसेरे भाई हुए।Ó बहुत संभव है कि दोनों बचपन में अपने ननिहाल पाली में साथ रहे। पीथल की ओर से प्रताप को खत लिखने की घटना से भी इस तथ्य को बल मिलता है। यह भी पाली और प्रताप के रिश्ते को प्रतिबिम्बित करता है।

Thursday, February 4, 2010

हिन्दी फिल्मों और करीब इतनी ही राजस्थानी फिल्मों में अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित कर चुके निर्माता-निर्देशक संदीप वैष्णव का मानना है कि मारवाड़ी फिल्मों के अस्तित्व को बचाने के लिए फिल्मकारों को व्यवसायिकता छोड़कर अपने नजरिए में बदलाव लाना होगा। वैष्णव से रोहित पारीक की बातचीत।
a सफलता के लिए कैसा नजरिया चाहिए?
ठ्ठ राजस्थानी फिल्में बनाने वाले फिल्मकार व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में मारवाड़ के पैटर्न को बदलने का कर रहे हैं और इसे वे पर्दे पर दिखा भी रहे हैं। यह दर्शकों को पसंद नहीं है। साफ-सुथरी, पारिवारिक और धार्मिक राजस्थानी फिल्म बनेगी तो निश्चित तौर पर दर्शक सिनेमाघरों की तरफ आएगा।
a धार्मिक फिल्में लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश तो नहीं?
बिल्कुल नहीं। धर्म लोगों के दिल से जुड़ा है। उनकी जिन्दगी का हिस्सा है। आज के युग में चमत्कार को ही नमस्कार है। यदि किसी देवी-देवता के साथ कोई चमत्कार जुड़ा है तो उसे पर्दे पर दिखाने में क्या हर्ज है। मैं भी ऐसा ही कर रहा हूं और दर्शकों को यह पसंद भी है। इसी कारण 2005 में आई जय श्री आईमाता सिनेमाघरों तक दर्शकों को खींचने में सफल रही।
a भोजपुरी की सक्सेस स्टोरी?
कुछ सालों पहले भोजपुरी फिल्मों का बाजार भी नहीं था। कुछ समय पहले आई 'म्हारो ससुरो बड़ो पैसे वालों फिल्म के हिट होने के बाद भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई। अब भोजपुरी फिल्म बाजार सबसे आगे है।
a दर्शकों के लिए क्या कहेंगे?
किसी भी फिल्म की सफलता दर्शकों से जुड़ी है। मातृभाषा में बनी फिल्मों की सफलता-असफलता उनकी आंखों में होती है।

ख्बाव तक देखना पसंद नहीं

रोहित पारीक
राज्य सरकार की बेरूखी के कारण राजस्थानी फिल्में इतिहास के पन्नों में सिमट रही है। पर्याप्त सुविधाएं व लोकेशन के अभाव तथा बाजार नहीं मिलना जैसे कई कारण है, जिनकी वजह से राजस्थानी फिल्म जगत की कमर टूट रही है। हालात तो इतने बुरे हैं कि नए निर्माता समृद्ध माने जानी वाली इस राजस्थानी संस्कृति को पर्दे पर उतारने का ख्बाव तक देखना पसंद नहीं करते।
राजस्थानी फिल्मों के सहारे कामयाबी और शोहरत पाने की तमन्ना रखने वाले कलाकारों के लिए इससे बुरे दिन कभी नहीं आए होंगे। दूसरी तरफ राज्य सरकारों के सहयोग के कारण अन्य प्रदेशों में भाषाई फिल्मों का बाजार गर्म है। समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो राजस्थानी फिल्में अतीत का अंग बनकर रह जाएंगी।
ऐसी बात भी नहीं है कि राजस्थान में रहने वाली आबादी अपनी भाषा में बनने वाली फिल्मों को नापंसद करती हो। इतिहास गवाह है कि बड़े पर्दे पर जब-जब कोई राजस्थानी फिल्म का प्रदर्शन हुआ, तब-तब उसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। राजस्थानी भाषा में अब तक 100 से अधिक फिल्मों का निर्माण और प्रदर्शन हो चुका है और सभी फिल्मों को दर्शकों ने पसंद भी किया। अब समय बदल रहा है। बड़े बजट और बड़े सितारों से सजी हिन्दी फिल्मों के सामने राजस्थानी सिनेमा पिछड़ रहा है। सरकार की भाषाई फिल्मों के प्रति उदासीनता ने इसमें आग में घी का काम किया। नतीजतन, आज राजस्थानी सिनेमा का साथ देने वाले चंद निर्माता ही राजस्थानी को बड़े पर्दे पर जिंदा रख पा रहे है।
वर्ष 1931 में देश में बोलती फिल्मों के निर्माण के साथ ही सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में फिल्में बनना शुरू हुई। राजस्थानी भाषा में पहली फिल्म का निर्माण 1942 में 'नजरानाÓ के रूप में हुआ। इस फिल्म के नायक महिपाल मूल रूप से जोधपुर में ही जाए-जन्मे थे। हिन्दी के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में बनीं यह पहली राजस्थानी फिल्म आर्थिक परेशानियों के कारण सही तरीके से व्यापक रूप से रिलीज नहीं हो पाई। लिहाजा, नाकाम रही और भुला दी गई। इसके बाद लगभग दो दशक तक राजस्थानी फिल्म जगत में कोई हलचल नहीं हुई। सही मायनों में राजस्थानी फिल्मों का सिलसिला वर्ष 1961 में शुरू हुआ। उन दिनों रिलीज हुई 'बाबासा री लाडलीÓ फिल्म ने भाषाई फिल्मों की लोकप्रियता के सभी रिकार्ड छू लिए। फिल्म की लोकप्रियता से प्रभावित होकर कई निर्माताओं ने राजस्थानी सिनेमा का रूख किया। 'नानीबाई रो मायरोÓ और 'बाबा रामदेवÓ जैसी राजस्थानी फिल्में हिट रही। सातवें दशक के आखिर में इस दौर का अंत हो गया।
वर्ष 1981 में सुपातर बीनणी की जबरदस्त कामयाबी के साथ ही राजस्थानी फिल्मों के दूसरे दौर की शुरूआत हुई। जिसमें वीर तेजाजी, म्हारी प्यारी चनणा, नणद भोजाई, नानीबाई रो मायरो, बाई चाली सासरिए, रमकूड़ी-झमकूड़ी, भोमली, लिछमी आई थारे आंगणे, बीरा बेगो आईजे रे, बीनणी होवे तो इसी और बवंडर सरीखी लोकप्रिय और चर्चित फिल्मों की भागीदारी है। साल में औसतन दो फिल्मों के निर्माण की गति के साथ अब भी राजस्थानी फिल्मों का सफर जैसे-तैसे जारी है। राजस्थानी फिल्म जगत अब साठ के पार पहुंच चुका है, लेकिन अब तक उसे अपनी रफ्तार और पहचान नहीं मिल पाई है।
सीमित बजट, अनुभवी फिल्मकारों के अभाव और सरकारी उदासीनता के कारण मरुभूमि की फिल्में पिछड़ रही हैं, जबकि देश का प्रादेशिक सिनेमा वर्र्षों से देश-विदेश में पुरस्कृत होता आया है। कामयाबी और कमाई के मामले में भोजपुरी फिल्में आगे निकलकर देश-विदेश में धूम मचा रही है। दूसरे प्रदेशों की तरह राज्य सरकार भी राजस्थानी फिल्मों को मनोरंजन कर मुक्ति और सरकारी अनुदान दें तो यहां भी भाषाई फिल्मों का परिदृश्य बदल सकता है। राजस्थानी फिल्में यहां की सांस्कृतिक विरासत और स्थापत्य के वैभव को उजागर कर पर्यटन को बढ़ावा दे सकती हैं। साथ ही, राजस्व और रोजगार का भी मोटा जरिया बन सकती है।

देख लेता है भीगे चेहरे के आंसू

rohit pareek

आप तेज बारिश में जा रहे हैं। दिल उदास है। आंखों में आंसू हैं। आपके गम के बारे में किसी को पता न लगे, इसलिए आपके होठों पर झूठी मुस्कुराहट है। बारिश की बूंदों में आपके आंसू पहचान ले। वहीं है दोस्त और इसी का नाम है दोस्ती। उसकी बातें सुनना अच्छा लगता हो..., उसके लिए बहुत कुछ करने का मन करे...। उसके होते हुए ऐसा लगे कि दुनिया में हम अकेले नहीं। उससे बातें करने का वक्त-बेवक्त कुछ नहीं। जब मन करे अपने दिल की बात उसके साथ बांट सके। दोस्त के अलावा वो और कौन हो सकता है। दोस्त जो आपकी जिंदगी बदल दें। दोस्त वह जो जिंदगी का हिस्सा बन जाए। रिश्तों के प्रति आपके विश्वास को और मजबूत बना दे। क्या वाकई आम लोगों के ऐसे दोस्त होते हैïं? जिनके जिन्दगी में शामिल होने से वे निहाल हो जाते हैं। शायद नहीं! दोस्ती के मायने अब बदल रहे हैं। वो बातें अब पुरानी हो चली है कि 'चले थे तन्हा, लोग मिलते गए कारवां बनता गया...Ó। महानगरीय जिन्दगी का यह कारवां भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं है। अब दोस्ती का अर्थ वे लोग जिनके साथ पार्टी में मस्ती की जा सके। पिकनिक पर जा सके। शॉपिंग की जा सके।
जब कभी हम तनाव में होते हैं तो जरूरत होती है एक ऐसे दोस्त की जो होठों पर मुस्कुराहट ला सके। लेकिन, जरूरत के समय ऐसा कोई होता ही नहीं हमारे पास। दोस्ती के बदलते मायनों में बहुत कम लोग खुशकिस्मत होते हैं, जिनके पास ऐसा कोई होता है। दोस्तों की जगह अब कंप्यूटर, मोबाइल, बेजान डायरियों और सूनी सड़कों ने ले ली है। ये आपकी जिन्दगी में दखल नहीं देते। आज दोस्ती बदले में कुछ पाने का नाम हो गई है। प्रतिफल की उम्मीद के साथ दोस्त बनते है। दोस्ती ईश्वर का दिया हुआ अनमोल तोहफा है। कोई सात कदम साथ चलने पर ही दोस्त बन जाता है तो कोई जिन्दगीभर साथ रहने के बाद भी आपसे नहीं जुड़ पाता। बुरे लोग पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। इसलिए सच्चा मित्र पाना थोड़ा मुश्किल है। ऐसे पवित्र रिश्ते की चाह रखने वाले को चतुराई का साथ तो छोडऩा ही पड़ेगा। इस रिश्ते में चतुराई की कोई जगह नहीं है।

MUDDA

rohit pareekचाहे 'वाटर ट्रेनÓ हो या पाली-दिल्ली के बीच प्रस्तावित यात्री गाड़ी। आने वाले लोकसभा चुनाव में 'ट्रेनÓ ही मुख्य मुद्दा होगा। पालीवासियों को रिझाने के लिए अभी से राजनीतिक दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। सत्ताधारी दल व विपक्ष दोनों ही ट्रेन को 'वोट ट्रेनÓ का रूप देने की फिराक में हैं। पाली के भोलेभाले मतदाताओं को पिछले दो दशक से रेलवे ब्रिज के नाम पर बहलाया गया। जो मुद्दे को भुनाने में ज्यादा कारगर रहे, वे जीतते भी रहे। अब ब्रिज का काम शुरू हो गया है और जिनको इस मुद्दे से विधानसभा चुनाव में वोट लेने थे, उन्होंने ले भी लिए। राजनेताओं ने अब नया शगूफा 'वाटर ट्रेनÓ व 'दिल्ली ट्रेनÓ का छेड़ा है। पालीवासियों को पानी की किल्लत सहते लगभग दो माह से अधिक समय हो गया है, तीन-चार दिन के अंतराल से लोगों को पीने को पानी मिल रहा है, उसकी भी शुद्धता की कोई गारंटी नहीं। बातें बड़़ी-बड़़ी हो रही हैं और आश्वासन भी लंबे-चौड़े दिए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर रेल मंत्री तक मामला जा चुका है, लेकिन अब बात अटक गई है कि जोधपुर से इंदिरा नहर का पानी पाली लाने के लिए रेलवे के पास वैगन नहीं है। भोलीभाली जनता के यह बात समझ से परे है। करोड़ों रुपए के बजट वाला महकमा और उसके पास पानी ढोने के लिए वैगन नहीं। लेकिन क्या करें, इस तरह के बयान आने लाजमी हैं, क्योंकि कुछ ही माह में लोकसभा के चुनाव जो होने हैं। केन्द्र व राज्य में एक ही दल की सरकार है, फिर यह अटकाव क्यों? विपक्ष भी वाटर ट्रेन को लेकर सजग होने लगा है, देखना यह है कि कौन इस मुद्दे को कितना भुना पाता है। ठीक यही स्थिति है पाली व दिल्ली के बीच यात्री गाड़ी चलाने की। पिछले कई सालों से मतदाताओं को यह आश्वासन मिलता रहा कि इस बार पाली को सीधे दिल्ली से जोड़ दिया जाएगा, लेकिन केन्द्र व राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें होने से आश्वासन को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। अब केन्द्र व राज्य दोनों में एक ही दल की सरकारें हैं, रेल बजट भी आने वाला है और केन्द्र के चुनाव भी निकट हैं, ऐसे में पाली से दिल्ली के बीच यात्री गाड़ी की घोषणा हो जाए तो यह पाली के लोगों की खुशनसीबी ही मानी जाएगी। दिल्ली से सीधा जुडऩे से पाली के औद्योगिक जगत को जहां चार चांद लगेंगे वहीं विकास की भी विपुल संभावना बनेगी। राजनेताओं को भी चाहिए कि वे बिना किसी पक्षपात के जनता के सेवक के रूप में कार्य करें और पाली टू दिल्ली ट्रेन की सौगात इस बजट में दें। वरना चुनाव तो सामने है ही, जनता सब हिसाब चूकता करने से भी हिचकने वाली नहीं है।
जरा सोचें!
rohit pareek
यह वह सत्य है, जिसे जानकर एक संवेदनशील व्यक्ति का फ्रिकमंद होना लाजिमी है। जीते जी इंसान को भले ही सुविधाएं न मिलें, लेकिन जीवन के आखिरी सफर में 'मिट्टीÓ के समय सुविधाओं का अभाव मन को सालता है। जिंदगी की आखिरी दहलीज पर हर इंसान की यह ख्वाहिश हो सकती है कि उसे मरते समय तो कम से कम सुकून जरूर मिलें। जिक्र हो रहा है पाली शहर के श्मशानों और कब्रिस्तानों का। इन्हें करीब से देखें, स्थिति खुद-ब-खुद साफ हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि कोई संगठन या मंडल इस ओर ध्यान नहीं दे रहा। कुछ नामी मंडल है, जो श्मशान घाट पर सुविधाओं के नाम पर खास तवज्जो दे रहे हैं और उनका काम दिख भी रहा है। बावजूद इसके, बहुत-से श्मशानों पर कही पानी और लकड़ी की कमी है, तो कही दफनाने के लिए जगह ही नहीं है। कई समाजों के खुद के श्मशान है, लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग अब भी अंतिम सफर के लिए हिन्दू सेवा मंडल के श्मशानों की मदद लेता है। मंडल इन दिनों लकड़ी की समस्या से जूझ रहा है। मंडल के मौजूदा प्रबंधों और प्रशासनिक स्तर पर हो रही कोशिश से यद्यपि लकड़ी मिल भी रही है, लेकिन मंडल के श्मशानों में होने वाले दाह के आंकड़ों के सामने यह मात्रा कम साबित हो रही है। सिर्फ लकड़ी ही नहीं, कही अंत्येष्टि में शामिल होने वाले लोगों के पीने के पानी की व्यवस्था नहीं हैं, तो कही उनके बैठने के लिए स्थान। बता दें कि शहर लगातार विस्तार ले रहा है। आबादी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है। ऐसे में एक पहलू यह हो सकता है कि श्मशान और कब्रिस्तान बहुत सालों पहले बने और उनकी चारदीवारी एक दायरे में सिमट गई।
कब्रिस्तानों की मिट्टी में निकल रहे कंकाल और हड्डियों को देखकर किसी भी कमजोर दिलवाले व्यक्ति की आंखों से आंसू निकल सकते हैं। मुर्दे को दफनाते समय यहां यह अहसास होने लगा है कि कब्रिस्तानों की मिट्टी में अब जगह कम पड़ रही है। श्मशान और कब्रिस्तानों की चारदीवारी कंकरीट के जंगल में सिमट चुकी है। अब इनका विस्तार नहीं हो सकता, लेकिन शहर के बाहरी इलाकों में नया स्थान आरक्षित कर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
शहर के आधे से अधिक इलाके के बाशिन्दों को कब्रिस्तानों के लिए काफी लम्बा सफर तय करना पड़ रहा है। ऐसे इलाकों में भूमि की समस्या का समाधान जरूरी है। सोचने का समय निकल चुका है, फिर भी अभी देर नहीं हुई है। गीता के श्लोक और कुरान की आयतें यह अहसास दिलाने के लिए काफी है कि इंसान एक माटी का पुतला है, जो इसी मिट्टी में जन्मा है और यही खत्म भी हो जाएगा। वह दुनिया में खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही जाएगा!

सालों सफर, उपलब्धि सिफर

-भाषायी सिनेमा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्नï
रोहित पारीक
पाली।
यह ठीक वैसा ही है। जैसा पर्यटन के क्षेत्र में देसी सैलानियों के साथ होता है। जिस तरह देसी सैलानियों को विदेशी सैलानियों के समकक्ष सुविधाएं और संसाधन मुहैया नहीं हो पा रहे। ठीक वैसे ही बॉलीवुड के साथ है। हॉलीवुड के मुकाबले बॉलीवुड में क्षेत्रीय सिनेमा पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। हॉलीवुड की टाइटेनिक और अवतार सरीखी फिल्में हमारे देश में सफलता के झण्डे गाड़ रही है और अपनी भाषा में बनीं फिल्में बॉक्सऑफिस पर लुढ़क रही है।
बॉक्स ऑफिस के ग्राफ में भाषायी सिनेमा दम तोड़ रहा है। अपनी माटी की खूशबु में रचे-बसे गीत...। अपनी ही बोली के संवाद और अपने ही इलाके की रमणीय लोकेशन, स्थानीय कलाकारों से सजी-धजी भाषायी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर लगातार लुढ़क रही है। कारण चाहे जो रहे, लेकिन हकीकत यही है कि देशभर में अलग-अलग भाषाओं का दबदबा होने के बावजूद क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ रही है। इसकी एक बानगी देखिए। गुजरे 77 सालों में देशभर में बोली जाने वाली 71 प्रमुख भाषाओं में से 47 भाषाओं में बनीं क्षेत्रीय फिल्में सिनेमाघरों में दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। ये वे फिल्में है जो किसी भाषा में सिर्फ एक बार बनीं और डिब्बे में बंद हो गई। भुसावल की सेन्ट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन की मानें तो इस सूची में 1931 के बाद से आज तक हिन्दी सिनेमा अव्वल स्थान बनाए हुए हैं। दूसरे स्थान पर तेलुगू और तीसरे पर तमिल सिनेमा है। राजस्थानी सिनेमा इस सूची में कोसों दूर है। बंगला, असमी, भोजपुरी, गुजराती, कन्नड़ सरीखे सिनेमा फिर भी सम्मानजनक स्थिति में है।
77 वर्ष-47 भाषाएं
1931 के बाद अंगिका, अरेबिक, अवधी, बगाड़ा, बंजारा, बोड़ो, बृजभाषा, बुन्देली, चौथनागरी, कोरगी, डोगरी, फ्रेंच, जर्मन, गुज्जर, हिमाचली, इरानियन, कारबी, कश्मीरी, कासी, कोडावा, कोकबोरोक, कोंकणी, कोरठा, कुंमायनी, लामबनी, मगधी, मैथिली, मालवी, मारवाड़ी, मिसींघ, मोनपा-अरुणाचल, मुलतानी, नगामीसी, नागपुरी, निमाड़ी, पस्तो, सदामी, सादरी, संस्कृत, सम्बलपुरी, साइलेंट बीजीएम, सिन्हालिसी, स्पेनिश, टी ट्राइब, थाई, ताइबेतान तथा उत्तरांचली भाषाओं में फिल्में तो बनीं, लेकिन दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। टूलू, उर्दू, सिन्धी, संथली, मणिपुरी, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरयाणवी व कोंकणी सिनेमा ने फिर भी सफलता की सीढिय़ा चढ़ी, लेकिन इन भाषाओं की फिल्में सदी का एक तिहाई सफर पार करने के बावजूद अपना मुकाम नहीं बना पाई।
इसलिए पिछड़ी है 'राजस्थानीÓ
राजस्थानी भाषा में फिल्में बनाने वाले फिल्मकार यहां संसाधनों के टोटे का रोना रोते है। सच्चाई यह है कि राजस्थान में हर पांच कोस बाद राजस्थानी बदल जाती है। पश्चिमी राजस्थान में शुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है, जबकि हाड़ौती में खड़ी राजस्थानी का बोलबाला है। श्रीगंगानगर सरीखे क्षेत्रों की राजस्थानी में तो पंजाबी पुट आ जाता है। इस कारण राजस्थानी भाषा में बनने वाली फिल्में एक सीमित दायरे में रिलीज हो पाती है। नतीजतन, फिल्में चलती नहीं है और फिल्मकार मैदान छोड़ भाग खड़े होते हैं। राजस्थानी भाषा में फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों का रटा-रटाया जवाब सरकारी तंत्र का असहयोग और सुविधाओं की कमी होता है। जबकि, राजस्थान के चप्पे-चप्पे पर बिखरी प्राकृतिक सुन्दरता बॉलीवुड के फिल्मकारों को आमंत्रित करती रही है।
इसलिए नहीं चलती भाषायी फिल्में
देश के करीब-करीब सभी प्रांतों में अलग-अलग भाषा बोली जाती है। एकमात्र हिन्दी को छोड़कर सभी प्रांतों में क्षेत्रविशेष की भाषा में फिल्मों का निर्माण होता है। हिन्दी फिल्में तो फिर भी नामचीन सितारों के दम पर चल जाती है, जबकि दमदार पटकथा, संगीत, बैनर, नामचीन सितारे और लोकेशन के अभाव में भाषायी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ जाती है। पहली बार अपनी भाषा में फिल्म बनाने वाला फिल्मकार बॉक्स ऑफिस पर अपनी फिल्म का हश्र देखकर दुबारा फिल्म बनाने का हौंसला नहीं जुटा पाता। नतीजतन, भाषायी फिल्मों की संख्या घटती जाती है।
सिनेमा का 77 सालों का सफर
भाषा इतनी बनीं फिल्में
हिन्दी 10660
असमी 308
बंगाली 2777
भोजपुरी 469
इंग्लिश 250
गुजराती 831
कन्नड़ 3141
मलयालम 3777
मराठी 1573
नेपाली 135
उडिय़ा 505
पंजाबी 399
राजस्थानी 101
तमिल 6860
तेलुगू 6991
स्रोत : सेन्ट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन, भुसावल