Thursday, February 4, 2010

सालों सफर, उपलब्धि सिफर

-भाषायी सिनेमा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्नï
रोहित पारीक
पाली।
यह ठीक वैसा ही है। जैसा पर्यटन के क्षेत्र में देसी सैलानियों के साथ होता है। जिस तरह देसी सैलानियों को विदेशी सैलानियों के समकक्ष सुविधाएं और संसाधन मुहैया नहीं हो पा रहे। ठीक वैसे ही बॉलीवुड के साथ है। हॉलीवुड के मुकाबले बॉलीवुड में क्षेत्रीय सिनेमा पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। हॉलीवुड की टाइटेनिक और अवतार सरीखी फिल्में हमारे देश में सफलता के झण्डे गाड़ रही है और अपनी भाषा में बनीं फिल्में बॉक्सऑफिस पर लुढ़क रही है।
बॉक्स ऑफिस के ग्राफ में भाषायी सिनेमा दम तोड़ रहा है। अपनी माटी की खूशबु में रचे-बसे गीत...। अपनी ही बोली के संवाद और अपने ही इलाके की रमणीय लोकेशन, स्थानीय कलाकारों से सजी-धजी भाषायी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर लगातार लुढ़क रही है। कारण चाहे जो रहे, लेकिन हकीकत यही है कि देशभर में अलग-अलग भाषाओं का दबदबा होने के बावजूद क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ रही है। इसकी एक बानगी देखिए। गुजरे 77 सालों में देशभर में बोली जाने वाली 71 प्रमुख भाषाओं में से 47 भाषाओं में बनीं क्षेत्रीय फिल्में सिनेमाघरों में दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। ये वे फिल्में है जो किसी भाषा में सिर्फ एक बार बनीं और डिब्बे में बंद हो गई। भुसावल की सेन्ट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन की मानें तो इस सूची में 1931 के बाद से आज तक हिन्दी सिनेमा अव्वल स्थान बनाए हुए हैं। दूसरे स्थान पर तेलुगू और तीसरे पर तमिल सिनेमा है। राजस्थानी सिनेमा इस सूची में कोसों दूर है। बंगला, असमी, भोजपुरी, गुजराती, कन्नड़ सरीखे सिनेमा फिर भी सम्मानजनक स्थिति में है।
77 वर्ष-47 भाषाएं
1931 के बाद अंगिका, अरेबिक, अवधी, बगाड़ा, बंजारा, बोड़ो, बृजभाषा, बुन्देली, चौथनागरी, कोरगी, डोगरी, फ्रेंच, जर्मन, गुज्जर, हिमाचली, इरानियन, कारबी, कश्मीरी, कासी, कोडावा, कोकबोरोक, कोंकणी, कोरठा, कुंमायनी, लामबनी, मगधी, मैथिली, मालवी, मारवाड़ी, मिसींघ, मोनपा-अरुणाचल, मुलतानी, नगामीसी, नागपुरी, निमाड़ी, पस्तो, सदामी, सादरी, संस्कृत, सम्बलपुरी, साइलेंट बीजीएम, सिन्हालिसी, स्पेनिश, टी ट्राइब, थाई, ताइबेतान तथा उत्तरांचली भाषाओं में फिल्में तो बनीं, लेकिन दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। टूलू, उर्दू, सिन्धी, संथली, मणिपुरी, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरयाणवी व कोंकणी सिनेमा ने फिर भी सफलता की सीढिय़ा चढ़ी, लेकिन इन भाषाओं की फिल्में सदी का एक तिहाई सफर पार करने के बावजूद अपना मुकाम नहीं बना पाई।
इसलिए पिछड़ी है 'राजस्थानीÓ
राजस्थानी भाषा में फिल्में बनाने वाले फिल्मकार यहां संसाधनों के टोटे का रोना रोते है। सच्चाई यह है कि राजस्थान में हर पांच कोस बाद राजस्थानी बदल जाती है। पश्चिमी राजस्थान में शुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है, जबकि हाड़ौती में खड़ी राजस्थानी का बोलबाला है। श्रीगंगानगर सरीखे क्षेत्रों की राजस्थानी में तो पंजाबी पुट आ जाता है। इस कारण राजस्थानी भाषा में बनने वाली फिल्में एक सीमित दायरे में रिलीज हो पाती है। नतीजतन, फिल्में चलती नहीं है और फिल्मकार मैदान छोड़ भाग खड़े होते हैं। राजस्थानी भाषा में फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों का रटा-रटाया जवाब सरकारी तंत्र का असहयोग और सुविधाओं की कमी होता है। जबकि, राजस्थान के चप्पे-चप्पे पर बिखरी प्राकृतिक सुन्दरता बॉलीवुड के फिल्मकारों को आमंत्रित करती रही है।
इसलिए नहीं चलती भाषायी फिल्में
देश के करीब-करीब सभी प्रांतों में अलग-अलग भाषा बोली जाती है। एकमात्र हिन्दी को छोड़कर सभी प्रांतों में क्षेत्रविशेष की भाषा में फिल्मों का निर्माण होता है। हिन्दी फिल्में तो फिर भी नामचीन सितारों के दम पर चल जाती है, जबकि दमदार पटकथा, संगीत, बैनर, नामचीन सितारे और लोकेशन के अभाव में भाषायी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ जाती है। पहली बार अपनी भाषा में फिल्म बनाने वाला फिल्मकार बॉक्स ऑफिस पर अपनी फिल्म का हश्र देखकर दुबारा फिल्म बनाने का हौंसला नहीं जुटा पाता। नतीजतन, भाषायी फिल्मों की संख्या घटती जाती है।
सिनेमा का 77 सालों का सफर
भाषा इतनी बनीं फिल्में
हिन्दी 10660
असमी 308
बंगाली 2777
भोजपुरी 469
इंग्लिश 250
गुजराती 831
कन्नड़ 3141
मलयालम 3777
मराठी 1573
नेपाली 135
उडिय़ा 505
पंजाबी 399
राजस्थानी 101
तमिल 6860
तेलुगू 6991
स्रोत : सेन्ट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन, भुसावल

No comments:

Post a Comment