Thursday, February 4, 2010

ख्बाव तक देखना पसंद नहीं

रोहित पारीक
राज्य सरकार की बेरूखी के कारण राजस्थानी फिल्में इतिहास के पन्नों में सिमट रही है। पर्याप्त सुविधाएं व लोकेशन के अभाव तथा बाजार नहीं मिलना जैसे कई कारण है, जिनकी वजह से राजस्थानी फिल्म जगत की कमर टूट रही है। हालात तो इतने बुरे हैं कि नए निर्माता समृद्ध माने जानी वाली इस राजस्थानी संस्कृति को पर्दे पर उतारने का ख्बाव तक देखना पसंद नहीं करते।
राजस्थानी फिल्मों के सहारे कामयाबी और शोहरत पाने की तमन्ना रखने वाले कलाकारों के लिए इससे बुरे दिन कभी नहीं आए होंगे। दूसरी तरफ राज्य सरकारों के सहयोग के कारण अन्य प्रदेशों में भाषाई फिल्मों का बाजार गर्म है। समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो राजस्थानी फिल्में अतीत का अंग बनकर रह जाएंगी।
ऐसी बात भी नहीं है कि राजस्थान में रहने वाली आबादी अपनी भाषा में बनने वाली फिल्मों को नापंसद करती हो। इतिहास गवाह है कि बड़े पर्दे पर जब-जब कोई राजस्थानी फिल्म का प्रदर्शन हुआ, तब-तब उसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। राजस्थानी भाषा में अब तक 100 से अधिक फिल्मों का निर्माण और प्रदर्शन हो चुका है और सभी फिल्मों को दर्शकों ने पसंद भी किया। अब समय बदल रहा है। बड़े बजट और बड़े सितारों से सजी हिन्दी फिल्मों के सामने राजस्थानी सिनेमा पिछड़ रहा है। सरकार की भाषाई फिल्मों के प्रति उदासीनता ने इसमें आग में घी का काम किया। नतीजतन, आज राजस्थानी सिनेमा का साथ देने वाले चंद निर्माता ही राजस्थानी को बड़े पर्दे पर जिंदा रख पा रहे है।
वर्ष 1931 में देश में बोलती फिल्मों के निर्माण के साथ ही सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में फिल्में बनना शुरू हुई। राजस्थानी भाषा में पहली फिल्म का निर्माण 1942 में 'नजरानाÓ के रूप में हुआ। इस फिल्म के नायक महिपाल मूल रूप से जोधपुर में ही जाए-जन्मे थे। हिन्दी के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में बनीं यह पहली राजस्थानी फिल्म आर्थिक परेशानियों के कारण सही तरीके से व्यापक रूप से रिलीज नहीं हो पाई। लिहाजा, नाकाम रही और भुला दी गई। इसके बाद लगभग दो दशक तक राजस्थानी फिल्म जगत में कोई हलचल नहीं हुई। सही मायनों में राजस्थानी फिल्मों का सिलसिला वर्ष 1961 में शुरू हुआ। उन दिनों रिलीज हुई 'बाबासा री लाडलीÓ फिल्म ने भाषाई फिल्मों की लोकप्रियता के सभी रिकार्ड छू लिए। फिल्म की लोकप्रियता से प्रभावित होकर कई निर्माताओं ने राजस्थानी सिनेमा का रूख किया। 'नानीबाई रो मायरोÓ और 'बाबा रामदेवÓ जैसी राजस्थानी फिल्में हिट रही। सातवें दशक के आखिर में इस दौर का अंत हो गया।
वर्ष 1981 में सुपातर बीनणी की जबरदस्त कामयाबी के साथ ही राजस्थानी फिल्मों के दूसरे दौर की शुरूआत हुई। जिसमें वीर तेजाजी, म्हारी प्यारी चनणा, नणद भोजाई, नानीबाई रो मायरो, बाई चाली सासरिए, रमकूड़ी-झमकूड़ी, भोमली, लिछमी आई थारे आंगणे, बीरा बेगो आईजे रे, बीनणी होवे तो इसी और बवंडर सरीखी लोकप्रिय और चर्चित फिल्मों की भागीदारी है। साल में औसतन दो फिल्मों के निर्माण की गति के साथ अब भी राजस्थानी फिल्मों का सफर जैसे-तैसे जारी है। राजस्थानी फिल्म जगत अब साठ के पार पहुंच चुका है, लेकिन अब तक उसे अपनी रफ्तार और पहचान नहीं मिल पाई है।
सीमित बजट, अनुभवी फिल्मकारों के अभाव और सरकारी उदासीनता के कारण मरुभूमि की फिल्में पिछड़ रही हैं, जबकि देश का प्रादेशिक सिनेमा वर्र्षों से देश-विदेश में पुरस्कृत होता आया है। कामयाबी और कमाई के मामले में भोजपुरी फिल्में आगे निकलकर देश-विदेश में धूम मचा रही है। दूसरे प्रदेशों की तरह राज्य सरकार भी राजस्थानी फिल्मों को मनोरंजन कर मुक्ति और सरकारी अनुदान दें तो यहां भी भाषाई फिल्मों का परिदृश्य बदल सकता है। राजस्थानी फिल्में यहां की सांस्कृतिक विरासत और स्थापत्य के वैभव को उजागर कर पर्यटन को बढ़ावा दे सकती हैं। साथ ही, राजस्व और रोजगार का भी मोटा जरिया बन सकती है।

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