Thursday, February 4, 2010

हिन्दी फिल्मों और करीब इतनी ही राजस्थानी फिल्मों में अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित कर चुके निर्माता-निर्देशक संदीप वैष्णव का मानना है कि मारवाड़ी फिल्मों के अस्तित्व को बचाने के लिए फिल्मकारों को व्यवसायिकता छोड़कर अपने नजरिए में बदलाव लाना होगा। वैष्णव से रोहित पारीक की बातचीत।
a सफलता के लिए कैसा नजरिया चाहिए?
ठ्ठ राजस्थानी फिल्में बनाने वाले फिल्मकार व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में मारवाड़ के पैटर्न को बदलने का कर रहे हैं और इसे वे पर्दे पर दिखा भी रहे हैं। यह दर्शकों को पसंद नहीं है। साफ-सुथरी, पारिवारिक और धार्मिक राजस्थानी फिल्म बनेगी तो निश्चित तौर पर दर्शक सिनेमाघरों की तरफ आएगा।
a धार्मिक फिल्में लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश तो नहीं?
बिल्कुल नहीं। धर्म लोगों के दिल से जुड़ा है। उनकी जिन्दगी का हिस्सा है। आज के युग में चमत्कार को ही नमस्कार है। यदि किसी देवी-देवता के साथ कोई चमत्कार जुड़ा है तो उसे पर्दे पर दिखाने में क्या हर्ज है। मैं भी ऐसा ही कर रहा हूं और दर्शकों को यह पसंद भी है। इसी कारण 2005 में आई जय श्री आईमाता सिनेमाघरों तक दर्शकों को खींचने में सफल रही।
a भोजपुरी की सक्सेस स्टोरी?
कुछ सालों पहले भोजपुरी फिल्मों का बाजार भी नहीं था। कुछ समय पहले आई 'म्हारो ससुरो बड़ो पैसे वालों फिल्म के हिट होने के बाद भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई। अब भोजपुरी फिल्म बाजार सबसे आगे है।
a दर्शकों के लिए क्या कहेंगे?
किसी भी फिल्म की सफलता दर्शकों से जुड़ी है। मातृभाषा में बनी फिल्मों की सफलता-असफलता उनकी आंखों में होती है।

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